शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

बोल , (बचन, भाषा,) स्वर , वाणी










हम सभी के पास वचन रूपी , औसधि और सस्त्र , दोनों होते है , केवल प्रयोग व्यक्ति पर निर्भर होता है ,
कबीर का दोहा "ऐसी वाणी बोलिए मन का आपाखोये ,औरो को शीतल करे आपहु शीतल होए "इस को हम थोड़ा आगे ले चलते है ,वाणी से अर्थ बोल , ज्ञान दोनों होता है परन्तु हमारे लिए तो वाणी पर संयम होना भी अपने आप में एक तपस्या है , और यही त्यागी, तपस्वी, बलिदानी ,दुर्लभ , होते है
स्वयम की शक्ति अपने पास होने पर भी ,हम किसे खोजते रहते है ,?,जिस मंत्रो आदि से देवतायों को भी बुला लिया जाता था ,तोह फिर इसका का प्रयोग सोच समझ कर क्यो न करे, क्यो की धर्म से बड़ी शक्ति है ,प्रेम की और यही धर्म बनाते है ,
नीद होने पर जगा जाए , या जगाया जाए ,यही विषय भोग है .,व चेतना तपस्या समान है ,????
एक और दोहा है , "निंदक नियरे रखिये आंगन कुटी छाए ... बिन ....साबुन निर्मल करे .... स्वाभाव"
क्यो की दिन है तो रात है , ! गीता अनुसार .....सुख दुःख ,लाभ,हानि , जे ,पराजय ,यश ,अपयश, और जीवन मरण लगा रहता है...................क्यो की एक के आस्तित्वो पर आंच आएगी तोह दूसरा ज़रूर प्रभावित होगा ,या समाप्त होगा , यही प्रकृति नियम है जो सर्वदा रहेगा ,
अतः वाणी पर भी संतुलन ज़रूरी है क्यो की संतुलन स्थापित करके ही सरिता सामान अग्रसारित हुवा जा सकता है एक कथा एक विषधर अपने विष से ही व्याकुल हो उठा ,तपस्या रत मुनि के पास गया , बोला ...महात्मा मैंने मनुष्य जाती को बहुत दुःख दिया है , अकेला हु , .....सभी मुझ से ,दूर रहते है ,...........महात्मा ने कहा प्रविती में सुधार करो ,अपने भूतपूर्व कर्मो का त्याग कर सरल बन तुप करो, वह शिव मन्दिर की सरन गया उसकी सरलता पर उसका मानसम्मान होने लगा ,धीरे धीरे सभी उससे जुड़ने लगे , उसे जबरदस्ती दूध पिलाते , जितनी मुह उतनी बाते , बच्चे तो उसे खेलते पत्थर मारते , पूँछ खीचते , वह अपनेको ब्याकुल हो उठा , अब उसे शान्ति याद आने लगी ............तथा ...............wah ....क्रमशः

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